विवेकजी, बीडी पीना शायद उतना बुरा न भी हो (-:
खुशी हुई यह पोस्ट देखकर | मैं भी परसाई जी से 'निन्दा रस' से ही परिचित हुआ था | लेकिन तब माध्यमिक कक्शा के छोकरों को नहीं मालूम था की वे हिन्दी व्यंग के शिखर पुरूष को पढ़ रहे हैं | हाँ, हमें पढ़ने में मजा जरूर आया था | एक प्रश्न यह भी था की "निर्दोष मिथ्यावादी किसे कहते हैं" |
"जब छल का ध्रितराष्ट्र आलिन्गन करे तो पुतला ही आगे करना चाहिए" अभी तक याद है |
बाद में देशबंधु में 'पूछिए परसाई से' मैं जरूर पड़ता था | यह भी स्कूल के ही दिन थे | मुझे आर्श्चय होता था कि सारी दुनिया के राजनीति , इतिहास, साहित्य के प्रश्नों के उत्तर ये कहाँ से ढूंढ के दे देते हैं | लेकिन इसमें कोई शक नहीं की उनका अध्ययन बहुत विस्तृत था |
उस कालम में किसी पाठक द्वारा किया गया एक प्रश्न याद आता है कि "यह क्यों कहा जाता है कि गुड गोबर हो गया, जबकि गोबर बहुत उपयोगी है ?"
उत्तर था - "क्योंकि गुड में मिठास होती है, गोबर में नहीं|"
"गद्य कोश" की जानकारी देने के लिए आभार |
परसाई जी का व्यंग तिलमिलाने वाला तो है ही, उन्होंने किसी को नहीं बख्शा है | कबीर की तरह | मुझे सबसे अच्छी बात परसाई जी के लेखन में जो लगती है वह है उनकी भाषा-शैली कहीं भी 'ओवर एक्टिंग' की शिकार नहीं है | व्यंग में अतिरिक्त प्रभाव पैदा करने के लिए कहीं भी उन्होंने विचित्र शब्दों का प्रयोग नहीं किया, कहीं आलंकारिकता या क्लिष्टता नहीं| सहज भाषा | सीधी चोट करते थे |
आपने अपने आलेख में लगभग सब कुछ समित ही दिया है |
श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए |
बहुत दिनों बाद आना हुआ....प्रयास और सोच अनोखी है ...आपके इस प्रयास में हम भी भागीदार बनना चाहते हैं...
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